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तौहीदे-रूबूबियत और उसके विरोधियों की वास्तविकता





तौहीदे-रूबूबियत की क्या वास्तविकता है ?उत्तर





उत्तर




हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।





तौहीदे-रूबूबियत : अल्लाह तआला को उसके कामों जैसे कि पैदा करने, मालिक होने, संसार का संचालन और व्यवस्था करने, रोज़ी देने, जीवित करने, मृत्यु देने, और वर्षा बरसाने इत्यादि में एकता और अकेला मानने को तौहीदे-रूबूबियत कहते हैं। चुनाँचि बन्दे का तौहीद संपूर्ण नहीं हो सकता यहाँ तक कि वह इस बात का इक़रार करे कि अल्लाह तआला ही प्रत्येक चीज़ का रब (पालनहार), मालिक, पैदा करने वाला और रोज़ी देने वाला है, और यह कि वही ज़िन्दा करने वाला, मारने वाला, लाभ पहुँचाने वाला, हानि पहुँचाने वाला और एक मात्र वही दुआ क़बूल करने वाला है, जिसकी मिल्कियत में सारी चीज़ें हैं, और उसी के हाथ में हर प्रकार की भलाई है, जिस चीज़ पर चाहे सक्षम और शक्तिवान है। और इसी में अच्छी और बुरी तक़्दीर पर ईमान रखना भी शामिल है।





तौहीद की इस क़िस्म का उन मुश्रिकों (अनेकेश्वरवादियों) ने भी विरोध नहीं किया जिन के बीच रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम भेजे गये थे, बल्कि सामान्य रूप से उस को स्वीकार करते थे ; जैसा कि अल्लाह तआला का फरमान है : "यदि आप उन से पूछें कि आकाशों और धरती की रचना किस ने की है ? तो नि:सन्देह उनका यही उत्तर होगा कि उन्हें सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञानी अल्लाह ही ने पैदा किया है।" (सूरतुज़-ज़ुख़रूफ़: 9) चुनाँचि वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि अल्लाह तआला ही सभी मामलों का संचालन करता है, और उसी के हाथ में आकाशों और धरती की बादशाहत है। इस से पता चला कि मात्र अल्लाह तआला की रूबूबियत का इक़रार कर लेना बन्दे के वास्तविक रूप से मुसलमान होने के लिए काफी नहीं है, बल्कि उस के साथ ही उसके लाज़मी तक़ाजे और उसके लिए आवाश्यक तत्व को पूरा करना ज़रूरी है, और वह तौहीदे उलूहियत और अल्लाह तआला को उसकी इबादत में एकता और अकेला मानना है।





तथा इस तौहीद -अर्थात् तौहीदे-रूबूबियत- का आदम की संतान (मनुष्यों) में से किसी सर्वज्ञात मनुष्य ने इनकार नहीं किया है ; चुनाँचि किसी एक मख्लूक़ ने भी यह नहीं कहा है कि : एक ही स्तर के संसार के दो पैदा करने वाले (सृष्टता) हैं। अत: तौहीदे-रूबूबियत का किसी एक ने भी इनकार नहीं किया है ; सिवाय इस के जो फिरऔन ने किया था ; तो वास्तविकता यह है कि उस ने भी घमण्ड, अहंकार और हठ के तौर पर इनकार किया था, बल्कि उस ने -उस पर अल्लाह की धिक्कार हो- यह गुमान किया कि वह रब (प्रभु) है, अल्लाह तआला ने उस के कथन का उल्लेख करते हुये फरमाया :





"उस ने कहा, तुम सब का महान प्रभु मैं ही हूँ।" (सूरतुन् नाज़िआत: 24)





"मैं तो अपने अतिरिक्त किसी को तुम्हारा पूज्य नहीं जानता।" (सूरतुल क़सस्: 38)





यह उस ने घमण्ड के तौर पर कहा था क्योंकि वह जानता था कि रब (परमेश्वर) उस के अतिरिक्त कोई अन्य ही है ; जैसा कि अल्लाह तआला ने फरमाया :





"उन्हों ने केवल अत्याचार और घमंड के कारण इन्कार कर दिया हालांकि उनके हृदय विश्वास कर चुके थे।" (सूरतुन नम्ल : 14)





तथा अल्लाह तआला ने मूसा अलैहिस्सलाम के कथन का उल्लेख करते हुये, जबकि वह फिरऔन से बहस कर रहे थे, फरमाया :





"यह तो तुझे ज्ञात हो चुका है कि आकाशों और धरती के प्रभु ही ने यह मोजिज़े (चमत्कार) दिखाने समझाने को अवतरित किए हैं।" (सूरतुल इस्रा: 102)





चुनाँचि वह अपने दिल में इस बात का इक़रार करने वाला था कि रब (प्रभु) अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल ही है।





इसी प्रकार साझेदारी के तौर पर तौहीदे-रूबूबियत का इनकार मजूस (पारसियों) ने भी किया है, उनका कहना है : संसार के दो खालिक़ (पैदा करने वाले या सृष्टा) हैं और वे दोनों प्रकाश और अंधकार हैं, इसके उपरान्त उन्हों ने इन दोनों पैदा करने वालों को समांतर और बराबर नहीं ठहराया है, चुनाँचि वे कहते हैं कि : प्रकाश, अंधकार से श्रेष्ठ है ; क्योंकि वह भलाई को जन्म देता है, जबकि अंधकार, बुराई को जन्म देता है, और जो भलाई को पैदा करता है वह उस से बेहतर है जो बुराई को पैदा करता है। तथा अंधकार अनस्तित्व है रोशनी नहीं देता है, और प्रकाश अस्तित्व है रोशनी फैलाता है, इसलिए वह अपने अस्तित्व में अधिक सम्पूर्ण है।





इसके बाद . . मुश्रेकीन (अनेकेश्वरवादियों) के तौहीदे-रूबूबियत को स्वीकार करने का मतलब यह नहीं है कि वे इसे सम्पूर्ण रूप से मानते थे ; बल्कि वे सामान्य रूप से इसका इक़रार करते थे जैसा कि अल्लाह तआला ने पिछली आयतों में उनके बारे में वर्णन किया है ; किन्तु वे ऐसी चीज़ों में पड़े हुये थे जो उस (तौहीदे रूबूबियत) में खराबी पैदा करती और उसे दूषित कर देती थीं ; उन्ही खराबियों में से उनका बारिश की निस्बत सितारों की ओर करना, और काहिनों और जादूगरों के बारे में यह आस्था रखना था कि वे प्रोक्ष (ग़ैब की बातों) का ज्ञान रखते हैं, इनके अलावा रूबूबियत में शिर्क के अन्य रूप भी थे ; किन्तु ये उनके उलूहियत और इबादत में शिर्क करने की शक्लों के अनुपात में, कम और सीमित थे।





हम अल्लाह तआला से प्रार्थना करते हैं कि हमें अपने दीन पर स्थिर और सुदृढ़ रखे यहाँ तह कि हम उस से मुलाक़ात करें।





और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।





देखिये :  (तैसीरुल अज़ीज़िल हमीद /33 तथा अल-क़ौलुल मुफीद 1/14)





इस्लाम प्रश्न और उत्तर





शब्द "ताग़ूत" का अर्थ





क्या "ताग़ूत" का शब्द उन आकार को भी सम्मिलित है जो लोगों को अपनी पूजा की ओर नहीं बुलाते हैं, जैसे सूर्य, पेड़, मूर्ति, पत्थर? क्या परहेज़गार (पुनीत और सदाचारी) मुसलमानों उदाहरण के तौर पर इमाम शाफेई को तागूत की संज्ञा दी जायेगी, इसलिए कि लोग उन की पूजा करते हैं या उन की क़ब्रों की पूजा की जाती है?उत्तर





उत्तर






हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।





अल्लाह के अलावा पूजी जाने वाली हर चीज़ ताग़ूत नहीं समझी जायेगी, क्योंकि तागूत के अर्थ के वर्णन में विद्वानों के कथनों में से शुद्ध कथन वह है जिसे इब्ने जरीर तबरी ने अपनी तफ्सीर (3/21) में वर्णन किया है : "ताग़ूत के बारे में मेरे निकट शुद्ध कथन यह है कि : ताग़ूत हर वह चीज़ है जो अल्लाह पर उपद्रव करने वाली हो और अल्लाह के अलावा उसकी पूजा की गयी हो, या तो उसने अपनी पूजा करने वालों पर दबाव बनाया हो, या उसके पुजारियों ने स्वयं उसकी पैरवी की हो, चाहे वह पूज्य मानव हो या दानव, पत्थर हो या मूर्ति, या कोई भी चीज़ हो। तथा उन्हों ने यह भी कहा कि : ताग़ूत का मूल शब्द आदमी के कथन: "तग़ा फुलानुन् यत्ग़ू" से से निकला है जो उस समय कहा जाता है जब वह अपने पद और स्थान से आगे बढ़ जाये और उसकी सीमा को पार कर जाये।"





पैग़ंबरों (ईश्दूतों), विद्वानों और उनके अलावा अन्य पुनीत और सदाचारी लोगों (औलिया व सालेहीन) ने लोगों को अपनी पूजा करने पर नहीं उभारा है, और न ही लोगों ने इस बारे में उनकी इताअत (आज्ञापालन) की है, बल्कि उन्हों ने तो इस से सख्ती से डराया और सचेत किया है, बल्कि लोगों की ओर सन्देष्टाओं (पैग़ंबरों) के भेजे जाने का उद्देश्य उन्हें एकमात्र अल्लाह की पूजा करने और उसके अलावा की पूजा का इनकार करने की तरफ बुलाना था, जैसाकि अल्लाह तआला का फरमान हैः





"हम ने प्रत्येक समुदाय में रसूल भेजे कि लोगो! केवल अल्लाह की उपासना करो और ताग़ूत (उस के अलावा सभी असत्य पूज्यों) से बचो। (सूरतुन-नह्ल: 36)





तथा अल्लाह तआला ने फरमाया :





"और (वह समय भी याद करो) जब कि अल्लाह तआला कहेगा कि हे ईसा इब्ने मरियम! क्या तुम ने उन लोगों से कह दिया था कि मुझ को और मेरी माँ को अल्लाह के सिवाय पूज्य बना लेना? (ईसा अलैहिस्सलाम) कहेंगे कि मैं तो तुझे पाक समझता हूँ, मुझ को किस तरह से शोभा देती कि मैं ऐसी बात कहता जिस के कहने का मुझे कोई हक़ नहीं, अगर मैं ने कहा होगा तो तुझ को उस का ज्ञान होगा, तू तो मेरे दिल की बात जानता है, मैं तेरे जी में जो कुछ है उस को नहीं जानता, केवल तू ही ग़ैबों (परोक्ष) का जानकार है। मैं ने उन से केवल वही कहा जिस का तू ने मुझे हुक्म दिया कि अपने रब और मेरे रब अल्लाह की इबादत करो, और जब तक मैं उन में रहा उन पर गवाह रहा और जब तू ने मुझे उठा लिया तो तू ही उन का संरक्षक (निगराँ) था और तू हर चीज़ पर गवाह है।" (सूरतुल माईदा : 116,117)





इसलिए नबियों (सन्देष्टाओं) और विद्वानों को ताग़ूत नहीं कहा जायेगा, अगरचि अल्लाह के सिवाय उनकी पूजा की गयी हो।





अगर कुछ लोगों ने इमाम शाफेई या उनके अलावा अन्य विद्वानों के बारे में ग़ुलू (अतिशयोक्ति) से काम लिया है और अल्लाह को छोड़कर उन से फर्याद किया है, या उनके क़ब्रों की पूजा की है, तो इस में उन विद्वानों का कोई गुनाह नहीं है, बल्कि इस का बोझ शिर्क करने वाले पर है। इसी प्रकार ईसाई लोग जिन्हों ने अल्लाह को छोड़कर ईसा अलैहिस्सलाम की पूजा की, ईसा अलैहिस्सलाम उनका कुछ भी बोझ नहीं उठायेंगे।





ताग़ूत की संछिप्त परिभाषाओं में से एक यह है कि : जिस की अल्लाह के सिवाय पूजा की जाये और वह उस से खुश हो। और यह बात सर्वज्ञात है कि ईसा अलैहिस्सलाम और उनके अलावा अन्य सन्देष्टा, और इसी तरह इमाम शाफेई रहिमहुल्लाह और उनके अलावा दूसरे एकेश्वरवादी विद्वान कभी अल्लाह के सिवाय अपनी पूजा (इबादत) से राज़ी नहीं होंगे, बल्कि वे इस से रोकते हैं और तौहीद (एकमात्र अल्लाह की उपासना) को स्पष्ट करते हैं, अल्लाह तआला का फरमान है :





"और (वह समय भी याद करो) जब कि अल्लाह तआला कहेगा कि हे ईसा इब्ने मरियम! क्या तुम ने उन लोगों से कह दिया था कि मुझ को और मेरी माँ को अल्लाह के सिवाय पूज्य बना लेना? (ईसा अलैहिस्सलाम) कहेंगे कि मैं तो तुझे पाक समझता हूँ, मुझ को किस तरह से शोभा देती कि मैं ऐसी बात कहता जिस के कहने का मुझे कोई हक़ नहीं, अगर मैं ने कहा होगा तो तुझ को उस का ज्ञान होगा, तू तो मेरे दिल की बात जानता है, मैं तेरे जी में जो कुछ है उस को नहीं जानता, केवल तू ही ग़ैबों (परोक्ष) का जानकार है। मैं ने उन से केवल वही कहा जिस का तू ने मुझे हुक्म दिया कि अपने रब और मेरे रब अल्लाह की इबादत करो . . ." (सूरतुल माईदा : 116, 117)





और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।





इस्लाम प्रश्न और उत्तर





तौहीद (एकेश्वरवाद) की गवाही का मतलब





ला इलाहा इल्लल्लाह (अल्लाह के अलावा कोई वास्तविक पूज्य नहीं) और मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह (मुहम्मद अल्लाह के संदेष्टा हैं) की गवाही देने का मतलब क्या है ?





उत्तर





उत्तर




हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।





अल्लाह की स्तुति के बाद : "ला इलाहा इल्लल्लाह" की गवाही का अर्थ यह है कि : अल्लाह तआला के सिवाय हर चीज़ से इबादत (उपासना और पूजा) की पात्रता का इनकार करना, और उसे एक मात्र सर्वशक्तिमान अल्लाह के लिए साबित करना जिसका कोई साझी नहीं, अल्लाह तआला का फरमान है : "यह सब इस लिए कि अल्लाह ही सत्य है और उसके अतिरिक्त जिसे भी यह पुकारते हैं वह असत्य है, और नि:सन्देह अल्लाह ही सर्वोच्च और महान है।" (सूरतुल हज्ज : 62)





शब्द (ला इलाहा) अल्लाह के अलावा पूजी जाने वाली सभी चीज़ों का इनकार करता है, और शब्द (इल्लल्लाह) हर प्रकार की इबादत को केवल अल्लाह के लिए सिद्ध करता है। अत: उसका मतलब यह है कि : अल्लाह के सिवाय कोई सत्य पूज्य नहीं है।





तो जिस तरह अल्लाह तआला का उसके अधिराज्य में कोई साझी नहीं उसी तरह अल्लाह सुब्हानहु व तआला का उस की पूजा और उपासना में भी कोई साझी नहीं।





तथा "मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम" की गवाही देने का मतलब यह है कि : दिल की गहराई से, जो ज़ुबान के इक़रार के अनुकूल हो, इस बात की सुदृढ़ पुष्टि करना कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के उपासक और सभी मानव जाति और जिन्न की ओर उसके संदेश्वाहक और ईश्दूत हैं, अत: आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने बीती हुई चीज़ों (भूतकाल) के समाचार और आने वाली चीज़ों (भविष्य) की खबरों से संबंधित जो सूचना दी है, और जो कुछ हलाल (वैध) ठहराया है, और जो कुछ हराम (निषिद्ध) ठहराया है उन में आप की पुष्टि करना, आप ने जिस चीज़ का आदेश दिया है उसका पालन करना, और जिस चीज़ से रोका है उस से रूक जाना, आप की शरीअत का अनुसरण करना, और प्रोक्ष एंव प्रत्यक्ष में आप की सुन्नत की पाबंदी करना, साथ ही साथ आप के फैसले पर संतुष्ट होना और उसे स्वीकार करना अनिवार्य है, तथा इस बात से अवगत रहना चाहिए कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का आज्ञापालन वास्तव में अल्लाह तआला का आज्ञापालन है, और आप की अवज्ञा दरअसल अल्लाह तआला की अवज्ञा है, क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह की तरफ से उसके संदेश को लोगों तक पहुँचाने वाले और उसके प्रचारक हैं, और अल्लाह तआला ने आप को मृत्यु नहीं दी यहाँ तक कि आप के द्वारा दीन (इस्लाम धर्म) को परिपूर्ण कर दिया और आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह ने संपूर्ण और स्पष्ट रूप से उसे लोगों तक पहुँचा दिया, अत: अल्लाह तआला आप को हमारी तरफ से सर्वश्रेष्ठ बदला जो उस ने किसी ईश्दूत को उस की जाति की तरफ से और किसी संदेष्टा को उसकी समुदाय की ओर से बदला दिया हो।





कोई भी व्यक्ति इन दोनों गवाहियों के बिना इस्लाम धर्म में प्रवेश नहीं कर सकता है, और ये दोनों गवाहियाँ एक दूसरे के लिए आवश्यक हैं, इसलिए "ला इलाहा इल्लल्लाह" की गवाही की शर्तें वहीं है जो मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह की गवाही की शर्तें हैं, और ये सब प्रश्न संख्या (9104) और (12295) में अपने प्रमाणों सहित उल्लिखित हैं।





और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।





शैख मुहम्मद सालेह अल-मुनज्जिद





 





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